पिछले कुछ वर्षों में देश ने कई सारे विरोध प्रदर्शन देखने को मिले हैं। इनमें से कुछ तो देशव्यापी और काफी बड़े भी रहे हैं। इनमें से कुछ मुद्दों के नाम उल्लेखनीय है। 2015 में लाए गए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश, 2016 की नोटबंदी, 2017 में जीएसटी, 2018 में एससी एसटी कानून को लेकर किया जाने वाला प्रदर्शन,और इसके विरोध में सवर्ण का प्रदर्शन, 2019 में धारा 370 और नागरिकता कानून, 2020 में लाई गई कृषि कानून ,और अभी लाई गई अग्निपथ योजना, इन तमाम मुद्दों पर देश भर में बड़े आंदोलन देखने को मिलें। इसके अलावा आरक्षण को लेकर भी बड़े विरोध प्रदर्शन देखने को मिलें। गुजरात के पटेल समुदाय का मामला हो या महाराष्ट्र के मराठा समुदाय का मामला।
इसके साथ -साथ देश भर में बढ़ रही सांप्रदियकता और अल्पसंख्यक विशेष कर मुस्लिम समुदाय के प्रति बढ़ रही नफरती भावना को लेकर , इन्होंने भी अलग अलग समय पर अपना विरोध दर्ज करवाया है। हालंकि अल्पसंख्यकों के विरोध प्रदर्शन को दबाने में सरकार काफी आक्रामक रही है। इन वर्षों में आदिवासियों के भी विरोध प्रदर्शन जारी रहें।मामला हसदेव के वनों की कटाई(ये आंदोलन अभी चल ही रहे हैं) का हो या बस्तर के एनकाउंटर का। ये अलग बात है कि आदिवासी के मुद्दे मुख्य धारा की मीडिया में ज्यादा स्थान नही मिलता। इतना ही नहीं , बेरोजगारी और सरकारी नौकरी में बहाली को लेकर युवाओं ने अलग अलग विरोध प्रदर्शन किया है। रेलवे, शिक्षक, एसएससी, पुलिस ,बैंक ,सेना,अलग अलग राज्यों के लोकसेवा आयोग, या संघ लोक सेवा आयोग , इन सब में भर्ती और उनमें आने वाली कठिनायों को लेकर युवाओं ने सरकार के खिलाफ अपनी आवाजों को उठाया है। इन सब मुद्दों के आलावा छोटे मोटे विरोध प्रदर्शन तो देश में होते ही रहते हैं। इन तमाम बड़े विरोध प्रदर्शन के बावजूद बीजेपी लगातार चुनाव जीतते गई है। देश भर में सफलता प्राप्त करने के साथ , अपने दायरों को भी बढ़ाया है। नए राज्य और क्षेत्र में अपने पांव पसारने के साथ नए लोगों को जोड़ा भी है। इस सफलता की मुख्य वजह क्या है?
अभी देश में चल रहे अग्निपथ योजना को लेकर भी बीजेपी ज्यादा चिंतित नजर नहीं आ रही है।क्योंकि उसे पता है कि युवा एकजुट नहीं है। या यूं कहें की जनता एकजुट नहीं है। ये जनता पहले से ही धर्म, जाति ,वर्ग और राष्ट्रवाद के नाम पर विभाजित है। इन्होंने कभी भी अपने साथी नागरिकों द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन का समर्थन नहीं किया। समर्थन करना तो छोड़िए, उल्टे इन्होंने इसका विरोध किया है। चाहे वो किसान आंदोलन हो या सीएए -एनआरसी का आंदोलन। यहां तक की युवा जो आंदोलन कर रहे रहें हैं, वो भी एकजुट नहीं है। रेलवे वाले अलग आंदोलन करते हैं तो शिक्षक अलग और एसएससी वालों का अलग आंदोलन चलता है। जबकि मुद्दा बेरोजगारी और निजीकरण के कारण सरकारी नौकरी में कमी का है। ये मुद्दें, चल रहे विभिन्न आंदोलन का विषय वस्तु ही नहीं है। सरकार को भी पता है कि ये आंदोलन करने वाले लोग भी जब मतदान करेंगे तो उनके लिए चुनावी मुद्दे राष्ट्रवाद, हिन्दुत्व और जाति होगी ना की आर्थिक मुद्दे। इस वजह से सरकार को विश्वाष है कि इससे सरकार पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा।
इसलिए विभिन्न आंदोलनों को जो अपेक्षित सफलता मिलनी चाहिए वो उन्हें नही मिली है। कभी भी असंगठित शक्ति , संगठित शक्ति से नही जीत सकती क्योंकि असंगठित शक्ति के कॉमन इंटरेस्ट नहीं होते। सरकार यहां पर संगठित है और जनता असंगठित। यहां सबके अलग अलग व्यक्तिगत इच्छाएं और लक्ष्य होते हैं।जबकि संगठित शक्ति का इंटरेस्ट कॉमन होता है। यानी एक ही लक्ष्य होते हैं। सरकार के लिए ये सत्ता में बने रहना है।ये सदियों से चलता आ रहा है वर्तमान समय में एक बड़ा परिवर्तन यह आ गया है कि संगठित शक्ति का दायरा बहुत बड़ा(वैश्विक स्तर पर)हो गया है। और ये दिन पर दिन और भी शाक्तिशाली होती जा रही है। जबकि असंगठित शक्ति अभी भी व्यक्तिगत स्तर पर ही है। ऐसे अवसर बहुत कम आते हैं जब उसके कॉमन इंटरेस्ट एक हों और एक समान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एकजुट हों।लगता है सरकार इस बात को अच्छे से समझती है। इसमें उसे मीडिया का अच्छा साथ मिल रहा है।
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