घटते रोजगार के बीच बढ़ती सांप्रदायिक हिंसा

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी की हालिया रिपोर्ट बताती है कि भारत में रोजगार की समस्या लगातार बढ़ती जा रही है। रोजगार ना मिल पाने और मिलने की उम्मीद भी ना रहने के कारण अब बहुत सारे युवाओं ने रोजगार की तलाश ही छोड़ दी है। बीते 5 सालों में 2.1 करोड़ जॉब घटे हैं। वहीं अगर रोजगार तलाश करने वालों की बात करें तो 45 करोड़ लोगों ने रोजगार ढूंढना ही  छोड़ दिया है। कामगारों की संख्या वर्ष 2017 में 46% थी जो अब घटकर 40% रह गई है। युवा आबादी होने के कारण भारत में 90 करोड़ लोग रोजगार के योग्य हैं। लेकिन क्या कारण है कि युवा आबादी निराशा की ओर जा रही है? एक तरफ यह रिपोर्ट है वहीं दूसरी तरफ यह भी बात सामने निकल कर आ रही है कि इंडस्ट्री को काम करने वाले नहीं मिल रहे हैं। यानी इंडस्ट्री को वर्कर चाहिए और वर्कर को काम लेकिन स्किल 'मैच' नहीं करने के कारण 'मिसमैच' की स्थिति पैदा हो रही है।

यह आंकड़े ऐसे समय में आए हैं जब देश में नफरत और सांप्रदायिक हिंसा में वृद्धि देखने को मिल रही है। नेशनल क्राईम रिकॉर्ड्स ब्यूरो 2020 के आंकड़े बताते हैं कि सांप्रदायिक हिंसा और झड़पों में बीते साल के मुकाबले जबरदस्त उछाल देखने को मिला है। इन घटनाओं में युवाओं की पूरी भागीदारी देखने को मिली है। तो क्या युवा इन सांप्रदायिक बहसों में उलझे हैं? और इन चर्चाओं को भारतीय मीडिया हवा देने में लगी है जिसकी पुष्टि इस बात से होती है कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को मीडिया की भाषा और कंटेंट को लेकर चेतावनी जारी करनी पड़ी। तो क्या रोजगार अब तक राजनीतिक मुद्दा नहीं बन पाया है? और जब तक यह राजनीतिक मुद्दा नहीं बन जाता तब तक इस समस्या का समाधान होता नहीं दिख रहा।

क्या रोजगार का संकट युवाओं के लिए पहचान का संकट बनता जा रहा है? क्या युवा अपनी पहचान बनाने के लिए धार्मिक आयोजनों, जुलूसों, नफरत और सांप्रदायिक हिंसा का सहारा ले रहे हैं। लेखिका रेवती लॉल ने अपनी किताब 'एनाटॉमी ऑफ़ हेट' में अपने किरदारों के माध्यम से इस बात का जिक्र किया है कि कैसे कोई युवा पहचान का संकट, पारिवारिक पृष्ठभूमि और एक ही तरह के विचारों पर अंध विश्वास के कारण दंगाई बन जाता है।यह किताब गुजरात दंगों में शामिल तीन युवाओं को लेकर लिखी गई है।

हमें रोजगार का संकट, समाज में बढ़ रही नफरत और सांप्रदायिक हिंसा को मिलाकर देखने की जरूरत है। समाज में बढ़ रहा सामाजिक असंतोष कहीं ना कहीं इस बात की निशानी है कि युवाओं के पास करने के लिए कुछ प्रोडक्टिव चीजें नहीं है या जो हैं भी तो वह कर नहीं पा रहे हैं। इस स्थिति का उपयोग विभाजनकारी शक्तियां अपने हित साधने में कर रही हैं। जरूरत इस बात की है कि जनता और राजनीतिक दल जीविका के  संकट मुख्य मुद्दा बनाए।

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